Wednesday, April 8, 2009

वेदान्तिक जीवन दर्शन : श्री विजय विजन

आत्मानुसंधान
मनुष्य का अस्तित्व कई परतों से बना होता है। अधिकांश मनुष्य अपने को शरीर के आलावा कुछ नहीं समझते। वे दूसरे को भी शरीर ही समझते हैं। एक शरीर और एक उसका नाम, बस। उन्हीं से सम्बन्ध बनते हैं, और वहीं आनंद ढूँढ़ते रहते हैं। कुछ लोग भावना के स्तर पर मन, बुद्धि , विवेक की बातें करते हैं। यह उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा नजर आता है। आप कहते हैं कि फलां व्यक्ति का मन निर्मल है। फलां व्यक्ति बुद्धिमान है, अथवा फलां व्यक्ति विवेकवान है। ऐसे में आप दूसरे के मन बुद्धि विवेक को समझाने का प्रयास करते हैं। उसका सम्मान भी करते हैं।
लेकिन हम सभी में आत्मतत्व या आत्मा के प्रति एक गहरा विश्वास होने के बावजूद भी हम उसे गहराई के साथ अनुभव नहीं कर पाते । कोई शब्दों में उसका विश्लेषण करे भी तप उसे 'आत्मसात' करना इतना आसान नहीं होता । अस्तित्व की इस आत्म रूपी ग्रंथि को खोलना सभी के लिए आसान नहीं होता। क्यों लगता है कि सिद्धांत से तो ठीक है, लेकिन व्यवहार में कुछ हमारी पहुँच के बाहर है।
मन विचिलित होता है। बुद्धि में विकार उत्पन्न होते हैं। विवेक सदैव स्थिर नहीं पाता, और ये सब हमारे व्यक्तित्व में झलक आता है। हम खुश होते हें, अथवा दुखी। हम किसी कार्य में सफल होते हैं अथवा असफल। हम किसी का मार्गदर्शन करते हैं अथवा किसी का मार्गदर्शन चाहते हैं। लेकिन आत्मा का स्वरुप हमारे अनुभव की पकड़ में इतने सीधे नहीं आता। जिन लोगों के व्यकतित्व में वह झलकता है, वे खुश या नाखुश नज़र शायद न आयें। वे सफलता और असफलता से प्रभावित भी न होते हों। वे कर्म का स्वाद भी नहीं लेते बैठते। कर्म अवश्य करते हैं, और कर्मों से ही उनका जीवन प्रकाशित होता है।
तो क्या यह आत्मतत्त्व सभी के द्वारा साधने की चीज़ नहीं? कहा तो यही जाता है कि कोई बिरला ही ही इसे जन पाता है। लेकिन कहा यह भी गया है कि सभी का अन्तिम लक्ष यही है। और इसका संधान भी हमें स्वयं ही करना होगा। आदि शंकराचार्य ने विवेक चूडामणि में कहा है-
अविद्या काम कर्म आदि पाश बन्धं विमोचितुम।
क:श्क्नुयाद्वीनात्मानं कल्प कोटिशतैरपि॥
अर्थ : हमारे अविद्या, कमाना और कर्म आदि के बन्धनों को सौ करोड़ कल्पों में भी कोई नहीं खोल सकता। यह पाश हमें स्वयं ही खोलना होगा।
कई बार हम मानवीय विकास की प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए पाते हें कि वर्तमान युग तक आते आते मनुष्य जाती ने अन्तर - बाहर के विभिन्न तलों पर भरपूर विकास किया है। मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक क्षमताओं का जबरदस्त विकास हुआ है। वह पहले से अधिक विवेकवान होता गया है। लेकिन क्या वह किसी रूप में पहले से अधिक आत्मवान भी हो पाया है? शायद नहीं। पर इससे पहले हम यह सोचें कि क्या ऐसा सम्भव भी है? मनुष्य आत्मवान कैसे हो सकता है? कैसे हम किसी व्यक्ति को देख कर जन सकते हैं कि वह कितना आत्मवान है? साथ ही यह भी विचारणीय हो जाता है कि क्या यह भौतिक विकास की किसी इससे भी आगे की अवस्था में सम्भव होगा, या उससे पूर्व भी इसकी उपलब्धि का कोई उपाय है?
वास्तव में आत्म दर्शन का अर्थ है स्वयं को देखना। स्वयं को हम कहाँ देख सकते हैं? दर्पण में या अपनी कल्पना में । या फिर हम दूसरे की आंखों में स्वयं को देखना चाहते हैं। यह आत्मदर्शन नही है। आत्मदर्शन दूसरे की आंखों में नही, दूसरे में स्वयं को देखना है। और किसी एक व्यक्ति या जाती में नहीं, सभी में स्वयं को देखना। जब दूसरा भी मेरा आत्म बन कर मेरे सामने होगा तसब वह हमें उतना ही प्रिय होगा जितने हम स्वयं को। और वास्तव में तब तो कोई दूसरा होगा ही नहीं। और जब एक ही बचा तो फिर बचा कौन? यही परम ज्ञान है, श्रेष्ठ ज्ञान है। मन बुद्धि, विवेक की परम अवस्था। जहाँ ये सब साधन स्वयं उस आत्मतत्व में विलीन हो जाते हैं। याज्ञवल्क्य कहते हैं-
ईज्याचारदमाहिंसा दान्स्वाध्याय कर्मणाम ।
अयमतुपर्मो धर्मोयद योगेन आत्म दर्शनम॥

अर्थ : यज्ञ, सदाचार, इन्द्रिय संयम, अहिंसा, दान और स्वाध्याय, ये सब तो धर्म हेतु हैं ही, किंतु सभी में आत्म भावः रखना परम धर्म अर्थात उत्तम योग है।
अब, यह बात इस रूप में तो सबके द्वारा कई बार कही-सुनी जाती है, तो भी इसका संधान सम्भव क्यों नही हो पाता ? और जब तक दावा स्वयम न पी ली जाए, रोग से मुक्ति कैसे हो सकती है? शब्दों की बाजीगरी से तो स्वास्थय लाभ होने से रहा।
न गच्छति विना पानं व्यधिरोषध शब्दतः ।
विना परोक्षनुभावं ब्रह्म शब्देर्ण मुच्यते ॥
अर्थ : "औषधि " शब्द के उच्चारण से रोग मुक्ति नहीं और " ब्रह्म " शब्द के उच्चारण से जीवन मुक्ति नहीं।
यही आत्मभाव का आदर्श वेदांत (उपनिषदों) में सर्वथा निराले रूप में दृष्टिगोचर होता है। जीव अपने कर्मों के स्वादिष्ट फलों से जब अघा जाता है, तब वश भीतर की ओर देखता है। जहाँ उसका आत्म स्वरुप निश्छल शांत है। और तब वह उसकी और खिंचा चला जाता है। उसके लिए आत्मानुसंधान अवश्यम्भावी हो जाता है। वह जान जाता है कि वह स्वयं आत्मतत्व है। अपने जीवन को हम भी आत्मानुसंधान से खोज कर देखें।

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