Wednesday, April 29, 2009

पुण्य स्मरण : आदि शंकराचार्य


वेद-वेदांत की ध्वजा विश्व में फहराई थी
आदि शंकराचार्य ने - श्री विजन

भारतीय दर्शन के अद्वैत सिद्धांत में आत्मा एवं ब्रह्मके संबंध को व्यावहारिक एवं बौद्धिक आधार प्रदान करके जगदगुरु आदि शंकराचार्य ने न केवल हिंदू धर्म को पुनर्प्रतिष्ठित करने में अहम भूमिका निभाई अपितु देश भर की लम्बी यात्राओं के माध्यम से चार मठों की स्थापना कर वेदों तथा वेदांत की प्रतिष्ठा फिर पूरे विश्व में कायम की।
केरल के कलाडीमें वैशाख शुक्ल पंचमी को उनका जन्म हुआ था। बालक शंकर के बाल काल में ही उनके पिता का निधन हो गया। माता की देखरेख में उनका पालन पोषण हुआ। सिर्फ आठ साल की उम्र में ही वे वेदों के ज्ञाता हो गए थे। ८ वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि से लोगों का चकित कर दिया था, तथा अपनी माता से हठ करके संन्यास ग्रहण कर लिया था।
उस काल में भारतीय जनमानस में बौद्ध एवं जैन धर्म का विशेष प्रभाव था। दूसरी ओर हिंदू धर्म अनेक छोटे-छोटे मतों ओर संप्रदायों में विभाजित हो रहा था। समाज को दिशा देने वाले किसी ऐसे जीवन-दर्शन का आभाव था, जो समाज को एक सूत्र में बाँध सके। समाज में अनीश्वर-वादी दर्शन तथा चार्वाक-वादी दर्शनों के प्रभाव से लोग धर्म-विमुख ओर स्वछन्द हो रहे थे । ऐसे समय में जगदगुरु शंकराचार्य ने सभी पंथों, मठों और संप्रदायों तथा सभी दार्शनिक सिद्धांतों को एक ध्वजा के नीचे लाने का विलक्षण प्रयास किया। अपने प्रयासों में उन्हें अद्भुत सफलता भी मिली। उन्होंने हिंदू धर्म को विश्व मंच पर पुनः प्रतिष्ठित किया। वेदों के माध्यम से हिंदू धर्म की पुनः स्थापना के बाद उन्होंने विश्व को अद्वैत वेदांत के मर्म से परिचित कराया। उनके द्वारा आरम्भ की गई वेदांत की अध्यात्म यात्रा वर्तमान में भी विश्व मानस को आलोकित कर रही है। देश भर में घूम घूम कर उन्होंने वेद-वेदांत के प्रति लोक में रूचि जागृत की तथा लोगो को धर्म मार्ग पर प्रवृत होने का न केवल संदेश ही दिया, अपितु अद्भुत प्रेरणा भी दी।
शंकराचार्य के समय में वैदिक धर्म की स्थिति अच्छी नहीं थी। समाज में वेद-निंदक समुदाय वेदों की निरंतर निंदा में लगे थे। आदि शंकराचार्य ने इस स्थिति में आमूलचूल बदलाव के लिए शास्त्रार्थ के माध्यम से बौधिक वेद-निंदक समुदायों को चुनोती दी थी। अपनी विलक्षण मेधा से उन्होंने अनेक वेदनिन्दक और दूसरे धर्म विरोधी विद्वानों को ललकार कर परास्त किया था। वैदिक धर्म की पुर्नस्थापनाके लिए उन्होंने विभिन्न पीठों और अखाडों की स्थापना की तथा अपने शिष्यों को धर्म विजय के लिए प्रशिक्षित किया। आदि शंकराचार्य ने सिर्फ 32 साल की छोटी सी आयु में ही वैदिक धर्म का पुनुरुद्धार किया और वेदों की प्रतिष्ठा स्थापित की । आत्मा एवं ब्रह्मके संबंध में उनका अद्वैत वेदांत का सिद्धांत अद्भुत और अद्वितीय है। इसके साथ ही उन्होंने अनेक लोक प्रिय काव्य और धर्म ग्रंथों का सम्पादन भी किया। उन्होंने भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्रों के साथ साथ उपनिषदों पर भी अद्वितीय भाष्य लिखे।
केवल 32वर्ष की उम्र में शंकराचार्य ने उन बौद्धिक ऊंचाइयों को छुआ, जिन पर आज भी भारतीय धर्म मानस गर्व करता है। उनकी जयंती के अवसर पर उन्हें शत-शत नमन।

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