Thursday, May 14, 2009

वेदान्त दर्शन क्या है?

हमारे देश में किसी भी काल में जितने दार्शनिक सम्प्रदाय, मत मतान्तर हुए हैं, वे सभी वेदान्त दर्शन के अन्तर्गत आते हैं। न केवल हमारे देश में अपितु विश्व में कहीं भी जो दार्शनिक विचारधारा विकसित होती है, वह वेदांत दर्शन के बुनियादी आधारों पर ही विकसित हो सकती है। वेदांत स्वयं सभी प्रकार की मत भिन्नताओं को उनकी समग्रता में स्वीकार करता है। वह कोई धर्म या ऐसा संप्रदाय नहीं है जो किन्हीं निर्धारित धार्मिक सीमाओं में कार्य करता हो। अपितु वह तो एक दार्शनिक प्रणाली है, जो जीवन की लोकिक और पारलोकिक समझ को विकसित करके हमें अनुभूति जगत से जुड़ने की क्षमता से संपन्न करती है। स्वयं वेदांत की कई प्रकार की व्याख्याएँ होती रही हैं। वेदांत जैसे समग्र दर्शन को समझने-समझाने के लिए यह आवश्यक भी है।
आदि शंकराचार्य के बाद से वेदांत पर कई व्याख्याएँ देखने को मिलती हैं। उनसे पहले भी वेदांत को वैदिक और उपनिषद काल से अनेक प्रकार से व्याख्यायित किया गया है । ये सभी प्रगतिशील व्याख्याएँ रही हैं। ऐसा माना जाता है कि प्रारम्भ में व्याख्याएँ द्वैतवादी हुईं, अन्त में अद्वैतवादी। अद्वैत वेदांत को वेदांत दर्शन की पराकाष्ठा कहा जा सकता है।
वेदान्त का शाब्दिक अर्थ है ‘वेद का अन्त’। वेद हिन्दुओं के आदि धर्मग्रन्थ हैं। पाश्चात्य विद्वानों की अधिकांश व्याख्याओं के कारन ‘वेद’ को केवल रिचाओं और कर्मकांड तक ही सीमित समझा जाता है। किन्तु अब भारत में इस विचारधारा में निरंतर संशोधन होता गया है। अब भारत में वेद और वेदान्त को अलग नहीं समझा जाता है। वस्तुतः आप किसी चीज़ को उसके अंत से काट कर उसकी समग्रता में नहीं देख सकते। जीवन का भी 'अंत' किसी एक दिन में अचानक नहीं होता। किसी भी चीज़ के अंत तक पहुँचाना एक पूरी प्रक्रिया के तहत होता है।
यह सही है कि वेद दो भागों में बांटे जा सकते है-कर्मकाण्ड तथा ज्ञानकाण्ड। कर्मकाण्ड के अन्तर्गत ब्राह्मणों की संहिताओं के मन्त्र तथा अनुष्ठान आते है। इससे भिन्न जिन ग्रंथों में आध्यात्मिक विषयों पर विवेचनाएँ है, उन्हें उपनिषद् कहते हैं। उपनिषद् ज्ञानकाण्ड के अन्तर्गत हैं। कुछ उपनिषदों की रचना वेदों से पृथक भी हुई है, लेकिन सभी की नहीं । कुछ उपनिषद् तो ब्राहमण ग्रंथों के अन्तर्गत आते हैं। संहिताओं या ऋचाओं के ही अन्तर्गत कम से कम एक उपनिषद् तो पाया ही जाता है। इन सबके आलावा भगवान् कृष्ण की अमर वाणी गीता को भी उपनिषद् कहा जाता है- गितोपनिषद। वेदांत सूत्रों के रचयिता महर्षि व्यास के वेदांत ग्रन्थ को वेदांत का प्रमुख प्रस्थान मानते हुए भी उपनिषद् नहीं कहा जाता। किन्तु सामान्यतः उपनिषद् शब्द का प्रयोग वेदों में निहित दार्शनिक विवेचनाओं के लिए ही होता है। कुछ उपनिषदों को आरण्यक में भी पाया गया हैं। प्रायः उपनिषदों की संख्या 108 मानी जाती है। यह ठीक है कि इनका समय निर्धारण नहीं किया जा सकता, किन्तु निश्चित रूप से अधिकांश बौद्धमत से प्राचीन हैं। कुछ गौण उपनिषदों में ऐसे विवरण हैं, जिनसे उनके अपेक्षाकृत आधुनिक होने का संकेत मिलता है, किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं हो जाता कि वे उपनिषद् अर्वाचीन हैं। षड़ दर्शनों में अन्तिम वेदांत दर्शन, जो व्यास कृत है, पूर्वप्रतिपादित दर्शनों की अपेक्षा वैदिक विचारों पर अधिक आधारित है। इसे सांख्य और न्य़ाय जैसे प्राचीन दर्शनों के बीच उत्तर मीमांसा या वेदान्त दर्शन के रूप में रखा गया है। इसलिए इसे विशेष रूप से वेदान्त दर्शन कहा जाता है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार व्यास-सूत्र ही वेदान्त दर्शन का आधार माना जाता है। यही वेदान्त मत का प्रामाणिक ग्रन्थ उत्तर मीमांसा है। विभिन्न भाष्यकारों ने व्यास के सूत्रों की व्याख्या विभिन्न प्रकार से की है। सामान्यत: अभी भारत में तीन प्रकार की प्रचलित वेदान्तिक व्याख्याएँ हैं। इन व्याख्याओं से तीन दार्शनिक पद्धतियों का विकास हुआ है-द्वैत, विशिष्टाद्वैत तथा अद्वैत। अधिकांश भारतीय द्वैत एवं विशिष्टाद्वैत के अनुयायी हैं। अद्वैतवादियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। लेकिन सभी वेदान्ती तीन तथ्यों पर एकमत हैं। ये सभी ईश्वर को, वेदों के श्रुत रूप को तथा सृष्टि-चक्र को मानते हैं। वेदों के बारे में संक्षेप में ऊपर कहा जा चुका हैं। सक्षेप में सृष्टिसंबंधी मत इस प्रकार है। समस्त दृष्टि- गत जड़ पदार्थ आकाश नामक मूल जड़-सत्ता से उद्भूत हुआ है। जीवन की समस्त चेतन शक्तियाँ आदि-शक्ति प्राण से उद्भूत हुई हैं। आकाश पर प्राण का प्रभाव पड़ने से सृष्टि का विस्तारण होता है। तत्पश्चात वह निरंतर बढ़ता ही रहता है। जो बढ़ता रहता है- वही ब्रहम है।
इस प्रकार वेदान्त की अनेक व्याख्याएँ पाई जाती हैं। इसके विचारों की अन्तिम अभिव्यक्ति व्यास के दार्शनिक सूत्रों में हुई है। अति प्राचीन काल में ही वेदान्त के व्याख्याकार तीन प्रसिद्ध हिन्दू सम्प्रदायों में विभक्त हो गये थे -द्वैत, विशिष्टाद्वैत तथा अद्वैत । अति प्राचीन व्याख्याएँ तो अब लुप्त प्रायः हो गयी हैं, किन्तु मध्य युग में बौद्ध धर्म के ह्रास के बाद शंकर, रामानुज तथा मधवा ने उनका पुनरुद्धार किया है। शंकर ने अद्वैत को, रामानुज ने विशिष्टाद्वैत को तथा मध्व ने द्वैत को पुन: संस्थापित किया है इन सभी मतों में अनेक स्थूल भिन्नताएं होने के बावजूद उनका मूल दार्शनिक आधार एक ही है। सभी मतों में जीवन की सनातन जिज्ञासाएं शाश्वत मूल्यों के बीच ही परिष्कार पाती हैं।
वेदांत की इस बाह्य दार्शनिक संरचना के आलावा उसके आतंरिक मर्म को जानने के लिए उसकी अलग से विवेचनाएँ हैं । इस सम्बन्ध में अलग से कहा जाएगा।

courtesy: http://vedantmandalam.blogspot.com/ -shri vijan

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